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राम कथा - युद्ध

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6498
आईएसबीएन :21-216-0764-7

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, सप्तम और अंतिम सोपान

पांच

 

विभीषण के तट पर पहुंचते ही वानर सैनिकों ने उनकी नौका को अपने अधिकार में ले लिया था और उन्हें तथा उनके सचिवों को निःशस्त्र कर, पहरे में राम के सम्मुख प्रस्तुत किया था।

राम ने विभीषण को देखा : यह उनके शत्रु का भाई था, जो उनकी शरण में आ गया था। हनुमान के माध्यम से सीता ने सूचना भेजी थी कि विभीषण और उनका परिवार सीता की सहायता कर रहा था। हनुमान को भी इसी विभीषण ने मृत्युदंड से बचाया था। रावण से उसका भेद बढ़ गया लगता है...

विभीषण और उनके सचिव वीर वेश में थे, यद्यपि उनके शस्त्र तट-सैनिकों ने उनसे ले लिए थे। विभीषण ऊंचे-लम्बे, हृष्ट-पुष्ट शरीर के स्वामी थे। उनका रंग गेहुआं था और आंखों में स्वच्छता, सरलता तथा स्वाभिमान का भाव था; यद्यपि इस समय अनिश्चय के कारण संकोच का भाव उनके सारे व्यक्तित्व पर छाया हुआ था।

राम ने मुसकराकर विभीषण के कंधे पर हाथ रख, उन्हें हल्के से दबाया, "आपका स्वागत है बंधुवर विभीषण। मैं स्वयं अयोध्या से निष्कासित हूं। सुग्रीव से जब मेरी मित्रता हुई थी, वे किष्किंधा से निष्कासित ही थे।" विभीषण हल्के से मुस्कराए, किन्तु कुछ बोले नहीं।

पुनः राम ही बोले, "इस दृष्टि से, हम में सम धरातल पर मैत्री हो तो अधिक अच्छा है; शरणागत होकर आना आपके लिए शोभनीय नहीं होगा।" राम रुके, "आपको राक्षसराज की ओर से कोई आशंका है?"

विभीषण के अधरों पर एक गंभीर मुस्कान उभरी, "मैं अपनी सुरक्षा के लिए आपकी शरण में नहीं आया। मैंने पहले ही निवेदन किया है कि मैं लंकावासियों की ओर से आपकी शरण में आया हूं।"

"स्पष्ट कहो विमीषण।"

"आर्य राम! इतना तो आप स्वीकार करेंगे ही कि राक्षसराज रावण जो कुछ भी कर रहा है-आवश्यक नहीं कि लंका का प्रत्येक निवासी उससे सहमति ही रखता हो।"

"नहीं। आवशक नहीं।" राम सहज भाव से बोले, "स्वेच्छाचारी राजा अनेंक बार अपनी इच्छा अपनी प्रजा पर बलात आरोपित करता है।"

"मेरा तात्पर्य भी यही है आर्य।" विभीषण बोले, "स्वेच्छाचारी राजा अनेक बार अपनी इच्छा अपनी प्रजा पर बलात आरोपित करता है।"

"मेरा तात्पर्य भी यही है आर्य।" विभीषण बोले, "आपका शत्रु रावण है, लंका की प्रजा नहीं।"

राम मुस्कराए, "मैंने किसी भी राज्य को प्रजा को कभी भी अपना शत्रु नहीं माना।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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